तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा
सपना सिंह
(1)
वह तेज-तेज चलने की कोशिश में हैं, पर अब उन्हें महसूस होने लगा है कि, इस तरह तेज चलना उनके लिए संभव नहीं रहा! पिछले कुछ समय से ऐसा होने लगा है कि तेज चलने की कोशिश में सांस उखड़ने लगती है। उन्होंने चाल धीमी कर दी है! वह मुख्य सड़क पर थोड़ा सा चलकर दायीं तरफ वाली सड़क पर मुड़ जाते हैं! दोनों तरफ आम, जामुन, महुआ के पेड़ों से आच्छादित ये सड़क उन्हें अपने गाॅँव की सड़क की याद दिला देती है।
वैसे वॉक के लिए इतनी दूर आने की जरूरत भी नहीं ।. काॅलोनी के सामने वाला पार्क खूब बड़ा और खूबसूरत है .... आस-पास की सोसाइटी के हेल्थकांशस लोगों का पसंदीदा स्थान है वो पार्क! सुरेखा अक्सर उन्हें झिड़कती हैं .. सामने का पार्क छोड़कर उन्हें उस गंवई सड़क पर टहलने जाने की क्या जरूरत! ‘सच, जरूरत तो कुछ भी नहीं, और बेजरूरत कुछ करना उनका स्वभाव भी नहीं रहा ।सिर्फ कुछेक मामलों में अनायास उनसे हो जाता है ऐसा। जब लगता है दिमाग पीछे चला गया हो दिल हावी हो गया हो। ये सुबह की वॉक भी उन कुछेक मामलों में से एक है।
वर्षों पहले जब ये पूरा इलाका सिर्फ खेत था! जिधर नज़र उठाओं खाली जमीने जो मौसम की फसलों से हरिआई रहतीं ...मई.. जून में खाली जमीनें ... वर्षा ऋृतु के इंतजार में अपने ठूठों और दरारों के साथ सन्नाटे का संचार करतीं। शहर के फैलाव ने अचानक यहाँ की जमीनों के भाव बढ़ा दिये। सुविज्ञ ने पहले ही यहाँ कई प्लाॅट ले लिया था। अप्पी को लेकर दिखाने भी आये थे। आश्चर्य से पूछा था उसने, यहाँ क्या करेंगे जमीन का...? नर्सिंग होम और ट्रामा सेंटर बनवाउॅँगा।
‘‘हे भगवान, यहाँ कौन आयेगा इलाज करवाने ...’’ अप्पी ने आश्चर्य से आॅँखे फैलाई थी दूर-दूर तक पसरे विराने को देखकर।
तुम देखना .... आने वाले दस सालों में इस जगह की कायापलट हो जानी है। बड़े-बड़े बिल्डर्स यहाँ जमीन ले रहे हैं.... विदेशों की तरह अब यहाँ भी माॅल कल्चर शुरू होने में देर नहीं है .... सब्जी, फल से लेकर फर्नीचर कपड़े होटल, रेस्टोरेंट और सभी चीजें एक ही जगह ..’’अप्पी को फिर भी विश्वास नहीं हुआ था कि, अगले कुछ वर्षो में इस जगह पर माॅल सुपर मार्केट, कालोनियाॅँ और अस्पताल बन जायेंगे।
बिल्कुल इसी जगह.... सड़क के किनारे घांस पर बैठे थे वो अप्पी के साथ! चिड़ियों की चहचह, पूर्व की ओर उगते सूरज की लाली, ठंड़ी हवा का झोंका .... भविष्य की प्लानिंग अप्पी चुपचाप सुनती रहती ... भीतर ही ...भीतर एक सोच भी उगती ... कितना कुछ प्लान करता है आदमी ... अब इन्हीं को ले लो ..... सबकुछ तो है फिर भी भविष्य में अटके हैं! बड़ा सा ट्रामा सेंटर बनायेंगे, बेटा बहू दोनों डाॅक्टर होंगे .... क्या पता बेटी-दामाद भी इसी प्रोफेशन से जुड़े हों ...।
जिन बातों पर अप्पी आश्चर्य करती थी ..... आज वो सभी सामने हैं बिल्कुल उसी रूप मंे! देखते ही देखते इस जगह के भाव आसमान छूने लगे थे कई बिल्डरों ने सुनियोजित कालोनियों का निर्माण आरंभ कर दिया था। शहर की बढ़ती भीड़, पार्किंग की समस्यायें और पापर्टी की बढती कीमतों ने लोगों में शहर के बाहरी हिस्सों में पंूजी निवेश का आकर्षण बढ़ा दिया था।
वह काफी आगे निकल आये हैं.... अपनी ही धुन में खोये हुए .... ! वापस लौटना चाहिए .... सुरेखा जग गई होंगी अब तक ... वर्षो से थाइराइड की समस्या से परेशान है .... दवाई सिरहाने रखी होती है फिर भी भूल जाती है लेना। हाथ पैरों में अकड़न साथ ही घुटनों का दर्द ... सब ने मिलकर उन्हें पस्त कर डाला है। उन्होंने कई बार कहा, साथ चलिए वॉक पर वो नाक भौं सिकोड़ लेती है। दरअसल, कालोनी के बाहर निकलते ही सड़क के दूसरी तरफ ..... मजदूरों की बस्तियाॅँ थीं। ये वही मजदूर थे जो छत्तीसगढ़ या उड़ीसा से आते थे मय परिवार। इस एरिया में ढेरों कंशट्रक्शन चल रहे थे जहाँ ये मजदूर दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करते थे ... अमीरों के सपनों में रंग भरते और रात में दारू पीकर हो हल्ला करते। सुरेखा को इनसे बड़ी चिढ़ थी .... जाने कब तक सहना पडे़गा इनको, कितने वर्षों से तो यहीं जमे पड़े हैं..... कितनों के यहीं शादी ब्याह हुए यही बाल बच्चे हुए और कितने तो यहीं सिधार गये।
खैर, सुरेखा उनके साथ वॉक पर नहीं जातीं... न सही घर में एक रूम बेटे ने जिम जैसा बना रखा है। टेªड मिल, साइकिल और वेट एक्सरसाइजिंग की सुविधा से युक्त। इतना बड़ा लाॅन है, उसी में टहला जा सकता है ..... बाॅलकनी में बैठकर ही प्राणायाम और स्टेªचिंग की जा सकती है ...। वह शुरू करती है पर, जारी नहीं रख पाती। सुविज्ञ भी बहुत जोर नहीं देते।
डाॅ. सुविज्ञ गौड़ शहर के ख्यातिप्राप्त सर्जन है। पिछले दो वर्षो से उन्होंने सर्जरी छोड़ दी है ..... छोड़ देनी पड़ी है। हाथ कांपता है ... पार्किन्सन।
इस नर्सिग होम और डायग्नोसिस सेंटर की स्थापना उन्होंने पाॅँच वर्ष पहले की थी .... अब तो ये अच्छा खासा स्थापित हो गया है, बेटे तपन और बहू अनन्या ने इसे अच्छी तरह संभाल लिया है। स्टाफ भी अच्छा खासा है। कुछ अन्य स्पेशलिस्ट डाॅक्टरों की विजिट भी होती है। एक चेबर डाॅ. गौड़ का भी है जहाँ वह सुबह नौ बजे से दोपहर दो बजे तक मरीज देखते हैं। शाम को वो अपने चेंबर में नहीं बैठते ... आस-पास की बस्तियों के चक्कर लगाते हैं या फिर सुरेखा के साथ क्लब चले जाते हैं। क्लब जाने से ... कुछ पुराने साथियों से एक ही जगह मुलाकात हो जाती है। शहर के कई इवेंट्स में भी उन्हें बुलाया जाता है ... जाना पड़ता है ..... जाये बिना रिहाई नहीं। सारे दिन में बस्स, यही सुबह की वॉक के समय वो अपने साथ होते हैं ... अकेले। गलत ... अकेले कहाॅँ. इसी समय तो आ जाती है, अप्पी ... उनके साथ कदम दर कदम चलती ..। यू तो सारे दिन वो उसकी यादों के साये तले रहते हैं पर, सुबह के वक्त वो यादे अधिक मुखर रहती हैं। सुबह की इस सैर के लिए वह कितना फोर्स करती थी .... पर वह कभी नियमित नहीं हो पाते थे . अब भला रात के बारह एक बजे सर्जरी से फुरसत पाने पर सुबह पांच बजे उठ पाना कहा संभव हो पाता। ये तो इधर दो वर्षो से नियमित हो पाये हैं ....
अप्पी जब आती तो अल सुबह आउटिंग का प्रोग्राम बना लेती। तपन और तूलिका भी अप्पी आंटी का साथ पाने के लिए बड़े उत्साह से सुबह-सुबह ही जग जाते .... सिर्फ सुरेखा ही नहीं शामिल होती। सुबह की नींद में खलल वो किसी भी कीमत पर नहीं बरदाश्त कर पातीं। लौटकर तपन और तूलिका ने जो दिलचस्प वर्णन किया होता उसके मद्देनजर, उन्होंने किसी तरह एक दो बार जाने की जहमत उठाई भी पर, पूरे समय कार में ऊंघते बैठी रहीं। उनींदी आंखों से डाॅक्टर साहब और अप्पी को टहलते देखती, कभी बच्चों को उछलते कूदते दौड़ते देखती ..हद हैं ये डाॅक्टर साहब भी, शहर से इतनी दूर कार से आना, और फिर कार खड़ी करके खेतों पगंडडियों के बीच टहलना ....
ये सारी बाते तो बहुत-बहुत पहले की हैं .... तब की जब अप्पी कभी कभार लखनऊ आ जाती थी बाद में तो ... वैसे कौन है ये अप्पी ... क्या रिश्ता है उसका डाॅ. गौड़ से ...? क्या लगती थी वो डाॅ. गौड़ की ...? तमाम नामों में बटे रिश्तों के बीच ढूढ़ने बैठे तो उसके साथ अपने रिश्ते को परिभाषित कर सकने वाले किसी एक नाम को आज भी रेखांकित नहीं कर पाते डाॅ. गौड।
‘‘सुबह सुबह हमें याद करना’’ अप्पी ने एक बार कहा था उनसे‘‘सुबह! क्यों ..’’ उसकी बातें उनके पल्ले नहीं पड़ती थीं।
‘‘आप इतने बिजी रहते हो ... हमें कहाॅँ याद करते होंगे .... चलों सुबह का अप्वॉइमेंट मेरा!’’
‘‘अच्छा! .. तुम्हारे चैबीस घंटो में मेरा अप्वॉइमेन्ट कब ..? इस बात पर उसने उन्हें यूॅँ देखा था मानों दुनियां में इससे ज्यादा बेवकूफाना बात और कुछ हो ही नहीं सकती।
कभी फोन करके पूछती, ‘‘ए ... सूपरमैन, बेड पर किस साइड सोते हो आप ..?’’ वह चकरा जाते, अब इस सवाल का क्या मतलब ...?
‘‘बताओं न .....’’
‘‘लेफ्ट ... पर पूछ क्यों रही हो...’’
‘‘आप हंसेंगे....’’
‘‘नहीं हंसूगा ... प्राॅमिस ....।’’
‘‘वो क्या है ..... हम जब रात को सोने जाते हैं ... तो जस्ट इमेजिन कि आपकी बाहों ... के घेरे को ... और फट्ट से नींद आ जाती है.... ’’
‘‘ये तो चीटींग है...।’’
‘‘क्यों भला ...?’’
‘‘भई, तुम्हारा समय तो सुबह का है न, फिर रात में क्यों ....’’
ऐसी कितनी बातें .... जिनका कोई मतलब ... कोई अर्थ नहीं .... लगभग बेतुकी ... फिर भी उन्हें अप्पी के मुंह से ....सुनना अच्छा लगता था .... बार-बार सुनना...
‘‘मन होता है ... जल्दी-जल्दी जिन्दगी बीत जाये...।
‘‘ऐसा क्यों...’’
‘‘बस्स ... जल्दी जल्दी बूढ़े होने का मन होता है ..... बूढ़ी होने के बाद कुछ भी करूूॅँगी कोई स्कैडल नहीं होगा ..... ’’ वो समझ गये थे वो दुखी है .... अपने और डाॅ. शर्मा को लेकर विश्वविद्यालय में उड़ रही खबरों से ‘‘डोण्टवरी ... ऐसी बातों को तूल नहीं देते .... जैसे उभरी है वैसे ही बैठ जायेंगी..’’
‘‘जी चाहता है ये सबकुछ छोड़ छाड़ दॅूँ..’’
‘‘फिर करोगी क्या ...’’
‘‘करना क्या है ... आपके पास आ जाउॅंँगी .....
मेरे खर्चे इतने ज्यादा तो नहीं ...’’
प्रतिउत्तर में वो हंस देते कुछ कुछ खिसियानी सी हंसी। कितनी आसानी से वह उनकी कैप्ट बनने की बात करती थी ...। वह जानते थे उनका साथ पाने के लिए वह किसी हद तक जा सकती थी। बस वो हद किसी की तकलीफ का बायस न बने।यही बात थी जो उसने अपना जीवन ... उस जीवन के सभी रास्ते उनकी पहुॅँच से दूर कर लिए थे।
धूप अब तीखी हो रही है। सुबह की वॉक के बाद करीब आधा घंटा डाॅ. गौड़ लाॅन में बैठते हैं .... सुबह की धूप सेंकते हुए .... चाय का घंूट धीरे-धीरे ..... हलक के भीतर उतारते .... ये समान्य चाय नहीं होती है। पिछले कुछ वर्षो से उन्होंने दूध चीनी वाली टेªडिशनल चाय छोड़कर ग्रीन टी पीने की आदत डाल ली है। माॅल्स, ब्रांड्स, पिज्जा, मल्टीप्लेक्स, फेसबुक, बाट्सएप की तरह ‘ग्रीन टी’ भी इस इटंरनेट युग का फैशनस्टेटमेंट जैसा ही चहुॅँ ओर छा रहा है। फायदा, नुकसान ..... कुछ समझ नहीं आता .... बस्स जैसे पहले दूध चीनी वाली चाय पीने की आदत थी वैसे ही अब इस ग्रीन टी की आदत लग गई है।
कुछेक योगासन और प्राणायाम भी वो इसी वक्त करते हैं ... पर, बारिश और ठंड के मौसम में। जब टहलने जाना मुमकिन नहीं होता। सोच में डूबे वो कप में पड़े ग्रीन टी के पाउच को हिलाने लगते हैं .... वही बाते वही यादें ... लगभग रोज ही ....
‘‘गुड माॅर्निग पापा ..।’’ ये उनकी पुत्रवधू थी - डाॅ. अनन्या.. टैªक सूट में।
‘‘मार्निंग बेटा .... जाॅंिगंग हो गई आपकी ..?’’
‘‘य ... अब थोड़ी ब्रीदिंग एकसरसाइज करूॅँगी।
‘‘तपन को भी उठा दिया करो ... उसका पेट बढ़ रहा है आजकल
‘‘वो सुनते ही नहीं .उन्हें नींद प्यारी है ...वैसे भी रात में काफी क्रिटीकल केस था..’’
‘‘मुझे पता है, तुम भी उसके साथ थी ...’’
सुविज्ञ मन ही मन हंसे थे ... वाह रे भारतीय नारी। उन्हें पता था अनन्या तपन को हर केस में अस्सिट करती है। वह तपन से उसकी हेल्थ को लेकर लेकर हमेशा आग्र्यू करती है .... पर अब देखों, कैसे तो पति की साइड ले रही है...।
डाॅ. गौड़ ने पेपर उठाया और अंदर चल दिये। अंदर लाॅबी में दीवान पर कुशन से टेक लगाये पैर फैलाये सुरेखा अधलेटी हुई चाय का बड़ा कप लिए बैठी थीं।
‘‘गुडमाॅर्निग बीवी ... एनीथिंग रांग..?’’ सुरेखा ने अपने घुटनों पर हाथ फेरते मुंह बिसूर दिया..।
‘‘देखो ... अब राजी हो जाओं इनके ट्रासंप्लान्टेशन के लिए ...’’
इस घर में दिन की शुरूआत ऐसे ही होती है। सुरेखा को कुछ देर माॅर्निग सिकनेस रहेगी। फिर वो अपने रूटीन में लग जायेंगी। घर का सारा मैनेजमेन्ट इन्हीं के हाथ में है। वैसे वो काफी एजुकेटेड महिला हैं। बी.एच.यू. से उन्होंने अंगे्रजी साहित्य में एम.ए और फिर पी.एच. डी., की है। डाॅ. साहब जब अपने विशेष डिग्री के लिए लंदन गये तो वहाॅँ पर सुरेखा ने अच्छे प्रतिष्ठित स्कूलों में अध्यापन किया। वापस भारत आने पर उन्होंने कुछ स्कूलों में प्रिंसिपल के पद पर कार्य किया। बाद में डाॅक्टर साहब की अति व्यस्तता ने उनको घर की जरूरत के प्रति सचेत कर दिया और उन्होंने स्वयं को घर तक सीमित कर लिया। फिर भी उनका सपना है .. गाँॅव में एक इंग्लिश मीडियम स्कूल खोलने का। उनके इस सपने डाॅ. साहब भी सच्चाई का जामा पहनाना चाहते हैं.... इसी बहाने गाॅँंव के सम्पर्क में रहना हो जायेगा .... पर कुछ तो स्वास्थ्य कारणों से कुछ समय के अभाव से उनकी यह योजना कार्य रूप में परीणिती नहीं हो पा रही है।
डाॅ. सुविज्ञ गौड़ मूल रूप से गोरखपुर जिले के रहने वाले हैं। गोरखपुर से दक्षिण में गरीब 30-35 कि.मी. अंदर राप्ती के किनारे इनका गाँॅव है। आस-पास के पांच सात गाँॅवों की जमींदारी इनके परिवार के पास है.... जो गोरखपुर और देवरिया जिले में आते हैं। पट्टिीदारी के चाचा, ताऊ ... कभी किसी ने कोई नौकरी नहीं की ... न ही किसी के बच्चों ने कोई नौकरी की। पूरे परिवार, में सुविज्ञ और उसके भाई बहन ही डाॅक्टर इंजीनियर बने हैं। सुविज्ञ और बहन सुनिधि ने मेडिकल लाइन चुनी तो स्वरूप ने इंजीनियरिंग की फिलहाल वह पी.डब्ल्यू डी. में चीफ इंजीनियर हैं .... एक दो साल में रिटायर हो जायेगा।
वैसे ये कहानी सुविज्ञ के परिवार या उसके पूर्वजों के एश्वर्य गान सुनाने के लिए नहीं कही जा रही है..... सुविज्ञ जैसे ... उसके परिवार जैसे तो इस देश में बहुतेरे हैं ... दरअसल कहानी तो है.... अपराजिता की ... अपराजिता और सुविज्ञ के बीच बने उस रिश्ते की जिसे अपराजिता ने बनाया था ... आज से वर्षो पूर्व ...।
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